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बुधवार, २८ जून, २०२३

संपूर्ण महागाथा मराठाशाहीची भाग १०२

 

संपूर्ण महागाथा मराठाशाहीची
संग्राहक ::विनोद जाधव



भाग १०२
सावळदा संस्कृती : (इ. स. पू. २५००–२०००).
महाराष्ट्रातील आद्य शेतकर्यांची एक सर्वांत जुनी संस्कृती. इ. स. पू. २५०० च्या सुमारास ह्या संस्कृतीचा उदय झाला. या संस्कृतीचा शोध सर्वप्रथम नंदुरबार (पूर्वीचा धुळे) जिल्ह्यातील सावळदा या ठिकाणी लागला. या गावाच्या नावावरूनच या संस्कृतीला ‘सावळदाʼ असे नाव देण्यात आले. तापी नदीच्या खोऱ्यातील सावळदा, कवठे व प्रवरा नदीच्या खोऱ्यातील दायमाबाद (जि. अहमदनगर) ही या संस्कृतीची महत्त्वाची स्थळे आहेत. सावळदा ही ताम्रपाषाणयुगीन संस्कृती असली, तरी या संस्कृतीच्या लोकांनी धातू व दगडांपेक्षा हाडांपासून बनवलेल्या हत्यारांना प्राधान्य दिलेले दिसते. हरणासारख्या प्राण्यांच्या हाडांपासून बनवलेल्या सुऱ्या, चाकू, तीराग्रे यांसारखी हत्यारे दगडी हत्यारे व अवजारांपेक्षा खूप मोठ्या प्रमाणावर सापडली.
सावळदा संस्कृतीची खापरे ही लाल रंगाची असून त्यांवर काळ्या रंगात नक्षीकाम केलेले आहे. प्राणी, पक्षी, जलचर – मासे इत्यादी – शिकारीसाठी वापरले जाणारे मत्स्यबाण (harpoons) इत्यादींचे चित्रण या खापरांवर आढळते. भांड्यांमध्ये प्रामुख्याने हंडे, वाडगे, थाळ्या यांचा समावेश होतो. दायमाबाद येथे चार खूर असलेले साठवणीचे रांजणही आढळून आले.
सावळदा संस्कृतीच्या स्थळांच्या उत्खननामधून प्राथमिक अवस्थेतील शेतीचे पुरावे मिळाले. या संस्कृतीचे लोक प्रामुख्याने बाजरी व क्वचित गहू आणि ज्वारीची लागवड करत असत. सावळदा येथील उत्खननात सापडलेली घरे आकाराने छोटी म्हणजे साधारण दीड ते दोन मीटर व्यासाची आहेत. ही घरे खड्ड्यात केलेली असत (dwelling pits). दहा- बारा सेंमी. खोलीचा गोलाकार किंवा लंबगोलाकार खड्डा खणून त्या भोवती वासे उभारून छप्पर केले जाई. घरांच्या अंगणात धान्य साठवण्यासाठी बळदांसारखे खड्डे केलेले होते. अंगणातले लहान आकारांचे खड्डे हे उत्खननकर्त्यांच्या मते, रात्री कोंबड्या ठेवण्यासाठी असावेत. येथील एक लंबगोलाकार आकाराचे घर खूप मोठे होते (४x३ मी.). घराची जमीन ३० ते ४० सेंमी. खोलीवर होती. एका कोपर्यात चूल होती. हे घर वसाहतीच्या प्रमुखाचे असण्याची शक्यता आहे.
दायमाबाद येथील उत्खननात सापडलेली घरे यापेक्षा मोठी होती. काही दोन तर काही तीन खोल्यांची घरे होती. त्यांच्या भिंती सु. ३० सेंमी. उंचीच्या असून त्यांवर काठ्या आणि मातीचे लेपण असावे. घराच्या आत गोलाकार खड्ड्यात चूल आणि धान्य साठवणीची बळदेही सापडली आहेत. मात्र येथे घरे बांधण्याआधी पूर्वनियोजन दिसून येत नाही. लहान वस्तीमध्ये जागा मिळेल तशी घरे बांधली गेली होती. येथील एक घर चतुष्कोनी आकाराचे होते (४.५ मी.). बैठी भिंत घालून त्याचे दोन भाग केलेले होते. या घरात एक लिंगाच्या आकाराचा दगड उत्खननात सापडला आहे. हा दगड धार्मिक समजूतींशी निगडीत असून हे मांत्रिकाचे घर अथवा मंदिर असण्याची शक्यता आहे.
कवठे येथील उत्खननात काही दफनांचे पुरावेही मिळाले आहेत.
महाराष्ट्रातील माळवा, जोर्वे यांसारख्या इतर ताम्रपाषाण संस्कृतींच्या तुलनेत सावळदा संस्कृतीचे लोक अप्रगत अवस्थेत होते. प्रामुख्याने तापी नदीच्या खोऱ्यात विस्तार असलेल्या ह्या संस्कृतीचे लोक खानदेश भागात फार काळ टिकाव धरू शकले नाहीत.
संदर्भ :
Annual Bulletin of the Archaeological Survey of India, IAR 1958-59, 1959-60, 1974-75 & 1984-85, New Delhi.
Shinde, V. S. ‘Settlement Pattern of The Savalda Culture : The First Farming Community of Maharashtra’, Bulletin of the Deccan College Research Institute, Vol. 49, pp. 417-426, Pune, 1990.
ढवळीकर, म. के. महाराष्ट्राची कुळकथा, पुणे, २०११.

संपूर्ण महागाथा मराठाशाहीची भाग १०१

 

संपूर्ण महागाथा मराठाशाहीची
संग्राहक ::विनोद जाधव




भाग १०१
हिंदू क्षत्रिय मराठा सातवाहन वंश की संक्षिप्त जानकारी।
पोस्तसांभार :: सुयश शिर्केसातवाहन
(शिवभगवान सातवाहन राजाओं के वंशज)©®
हिंदू क्षत्रिय मराठा सातवाहन राजे महाराष्ट्र के संस्थापक-निर्माते हैं।
महाराष्ट्र राज्य सातवाहन राजाओं द्वारा पूर्व-क्षेम विज्ञापन अवधि में बनाया गया था।
महाराष्ट्र की स्थापना हजारों लाखों साल पहले हुई थी और हिंदू क्षत्रिय मराठा सातवाहन राजा महाराष्ट्र के निर्माता हैं।
महाराष्ट्र के आराध्यदैवत कुलदैवत देवता शिवभगवान महादेव शंकर पार्वती हैं।
सातवाहन राजा शिवभगवान हैं। सातवाहन राजा शिवभगवान (महादेव) के वंशज हैं, इसलिए शिवभगवान सातवाहन नाम पड़ा हें।
सातवाहन राजा हिंदू वैदिक आर्य सनातनी क्षत्रिय मराठा समुदाय के राजा हैं। वह हिंदू वैदिक आर्य सनातनी धर्म यानी हिंदू धर्म के रक्षक हैं।
९६ कुल मराठा सातवाहन राजाओं द्वारा बनाए गए थे।
मल्लरठ्ठ से ल्ल की जगह र के रूप में किया गया और मराठ्ठा-मराठा (महारठ्ठा-मराठा) जाति किया गया। सातवाहन राजा क्षत्रिय मराठा जाति के निर्माकर्ता हैं।
ऋग्वेद मे महाराष्ट्र को महान राष्ट्र महाराष्ट्र (क्षत्रिय मराठा साम्राज्य) बताया गया हे.
महाराष्ट्र का अर्थ है मराठा और मराठा का अर्थ है महाराष्ट्र और महाराष्ट्र का अर्थ है सातवाहन साम्राज्य।
महाराष्ट्र राज्य अतीत में एक स्वतंत्र राज्य रहा है और आज भी है। सातवाहन राजे महाराष्ट्र के मालिक भी हैं।
महाराष्ट्र मे सबसे पहिले कदम रखने वाला वंश सातवाहन वंश हि था.
प्रभू श्रीराम के काल मे भी महाराष्ट्र मे सातवाहन शासन था. राजा का नाम मदन सातवाहन था. तब महाजनपद कि व्यवस्था थी महाराष्ट्र मे अश्मक महाजनपद था ओर राजधानी अश्मकनगर प्रतिष्ठान(पैठण) थी।
सातवाहन राजाओं का शासन आगे पिढीयों तक रहा था।
मौर्य काल में भी, महाराष्ट्र में सातवाहन राजाओं का शासन था। सातवाहन राजा किसी के भी मांडलिकत्व मे नहीं थे, उनका शुरू से ही अपना स्वतंत्र अस्तित्व था।
सिमुक सातवाहन ने कन्व वंश के सम्राट को हराकर महाराष्ट्र के जुन्नर, पैठण को अपनी राजधानी बनाया. राजा सिमुक इन्हें सिंधुक भी कहा जाता है सातवाहन का सीधा अर्थ होता है सूर्य सात - वाहन यानी कि सात घोड़े जो भगवान सूर्य जी के रथ को होते हैं यह सूर्यवंशी राजवंश था।
जब शिर्केसातवाहन वंश के गौतमीपुत्र सातवाहन राजा ने विदेशी शक राजा को हराकर महाराष्ट्र को विदेशी आक्रमणों से मुक्त किया और गुडीपाडवा उत्सव की शुरुआत की। उसी त्यौहार को हिंदू मराठी नववर्ष और सातवाहन राज्याभिषेक समारोह के रूप में जाना जाता है,
सातवाहन वंश का कार्यकाल पूर्व-क्षेम विज्ञापन अवधि (ईस्वी पूर्व) से लेकर चालू होता हे क्षेम विज्ञापण बाद (इसवी बाद) भी सातवाहन राजाओं ने राज किया ओर उसके बाद भी सातवाहन साम्राज्य था ओर आज भी सातवाहन साम्राज्य हे.
सातवाहन साम्राज्य आज के महाराष्ट्र, कर्नाटक और आंध्र प्रदेश,तेलंगणा, तमिलनाडू, केरल, दक्षिण गुजरात का कुछ हिस्सा दक्षिण मध्यप्रदेश का कुछ हिस्सा, दक्षिण छत्तीसगड का कुछ हिस्सा, दक्षिण ओडीसा का कुछ हिस्सा लेकर एक बड़ा विशाल साम्राज्य था। और आज भी है।
सातवाहन राजाओं ने शक, यवन (आगरी/कालण), कुषाण और हूण सहित अन्य विदेशी आक्रमणों को हराकर महाराष्ट्र और पूरे हिंदुस्तान की रक्षा की थी।
सातवाहन काल में प्राकृत भाषा का अर्थ मराठी भाषा है और साहित्य में भी प्रगति हुई. इस काल में राजकीय भाषा प्राकृत (मराठी भाषा),संस्कृत थी और प्रचलित लिपि ब्राह्मी,संस्कृत थी. उन्होंने अपने सभी अभिलेख, प्राकृत भाषा तथा ब्राह्मी लिपि ओर संस्कृत में ही लिखवाये. हाल नामक सातवाहन राजा प्राकृत भाषा का प्रसिद्ध कवि था. सम्भवतः उसी ने श्रृंगार रस की गाथा सप्तशती की रचना की थी. इसमें 700 से भी ज्यादा पद्य थे जो प्राकृत में रचे गये थे. सम्भवतः गुणाढ्य की वृहतकथा भी सातवाहन के काल में लिखी गयी. तमिल साहित्य में भी कुछ रचनाएं इसी युग में शुरू की थी. इसी काल में संस्कृत व्याकरण की पुस्तक “कातंत्र” संघवर्मन नामक विद्वान ने लिखा.
सातवाहन राज्य के लोग विभिन्न उद्योगों से अपना जीवनयापन करते थे। कृषि और पशुपालन के अलावा, विभिन्न व्यवसाय भी विकसित किए गए। उन्होंने विभिन्न प्रकार के धातुओं से विभिन्न वस्तुओं और औजारों को बनाया, लोहे के औजारों ने खेत के औजार के साथ-साथ घरेलू वस्तुओं को भी बनाया।
क्षेम विज्ञापन बाद पहली शताब्दी (पहली शताब्दी ईस्वी) में कोलार के स्वर्ण क्षेत्र में प्राचीन सोने की खानों के साक्ष्य मिले हैं। सातवाहनों ने सोने को कीमती धातु के रूप में इस्तेमाल किया होगा। (क्योंकि वे कुषाणों की तरह सोने के सिक्के नहीं चलाते थे)। इनमें मिट्टी के बर्तनों, इत्र बनाने, खानों से धातु निष्कर्षण, हाथी दांत का काम, सूती और रेशम से कपड़ा बनाना, चमड़ा और इससे विभिन्न "वस्तुएं" बनाना, दवाइयाँ बनाना, डाई, सोना, तांबा, मोती और आभूषण आदि बनाना शामिल हैं। उद्योग में शामिल थे। इस राज्य में, विभिन्न ट्रेडमैन ने अपने स्वयं के सामूहिक संगठनों या बर्तनों, मिट्टी के बर्तनों (बुनाई), तिलहन (तेल), कणमास्कर (कांस्य के बर्तन), गांधी (इत्र के निर्माता और विक्रेता) का गठन किया। उन्होंने आधुनिक बैंकों के लिए भी काम किया। ये श्रेणियां अन्य लोगों के धन को ब्याज पर रखती थीं और दूसरों को उनका ब्याज देती थीं। इन श्रेणियों ने समाज में कारीगरों की प्रतिष्ठा और सुरक्षा अर्जित की। प्रत्येक श्रेणी का अपना प्रतीक (टोटेम), टैगमा, शीशा लगाना और सील होना था। यह संगठन बिना किसी भेदभाव के सभी भक्तों को दान और दान देता था और इसकी अध्यक्षता सातवाहन राजे ने की थी जिसके लिए सातवाहन राज का सातवाहन उद्योग व्यवसाय (महाराष्ट्र राज्य: उद्योग और व्यवसाय प्राधिकरण) के नियंत्रण में था। सातवाहन उद्योग व्यवसाय प्राधिकरण (सातवाहन इंडस्ट्रीज) के अध्यक्ष सुयश शिर्केसातवाहन (सातवाहन राजाओं के वंशज) हैं।
सातवाहन युग में मंत्रिपरिषद की व्यवस्था थी. इस बात की जानकारी हमें रुद्रदामा के अभिलेख से मिलती है. इसके अभिलेख में पति सचिवों तथा कम सचिवों का उल्लेख है जो मंत्रिपरिषद के अस्तित्व को सिद्ध करती है. मंत्रियों की सहायता से राजा अलंघ की प्राप्ति, प्राप्त की रक्षा, रक्षित की वृद्धि और वृद्धि का योग्य पात्रों में वितरण करता था.
सातवाहन राजाओं ने मौर्य सम्राट अशोककालीन कुछ प्रशासनिक इकाइयों को बनाए रखा. उनके समय में जिला को अशोक के काल की तरह आहार ही कहा जाता था. प्रत्येक जनपद का शासन एक अमात्य, सैनिक राज्यपाल अथवा स्थानीय सरदारों के पास होता था जो महाभोज या अमात्य और महामात्य कहलाते थे. यह विचार ठीक जान पड़ता है क्योंकि शिर्केसातवाहनों के प्रशासन में हम सैनिक और सामंती तत्व भी पाते हैं. यह महत्त्वपूर्ण बात है कि सेनापति को प्रान्त शासक नियुक्त किया जाता था. इस सम्बन्ध में एक इतिहासकार का कहना है “चूंकि दक्कन के कबीलाई लोगों का पूरी तरह न तो हिन्दूकरण हुआ था और न ही वे अपने को नए शासन के अनुकूल बना पाए थे इसलिए उन्हें सैनिक शासन के अधीन रखना आवश्यक था. गांवों का शासन राज्य द्वारा नियुक्त अधिकारी के पास होता था. उसे गौल्मिक कहा जाता था. वह एक ऐसे सैनिक का प्रधान होता था जिसमें नौ रथ, हाथी, पच्चीस घोड़े और पैतालीस पैदल सैनिक होते थे. उसका कर्त्तव्य था कि वह कर एकत्र करे तथा शान्ति बनाये रखे. सातवाहन राज्य में नगरों की भी कमी नहीं थी. वहीँ नगर की शासन व्यवस्था नगर व्यवहारिक चलाता था जो शान्ति बनाये रखने के साथ-साथ शिल्प कार्यों की देखभाल तथा शिल्पियों एवं व्यापारियों से कर वसूल करता था.
भूमि-कर, व्यापारियों तथा शिल्पियों पर लगने वाले कर तथा जुर्माने राज्य की आय के प्रमुख साधन थे. दण्ड विधान प्राय: कठोर था लेकिन वासिष्टीपुत्र श्रीपुलभावि ने अपराधियों के प्रति नर्मी का व्यवहार किया. कुछ उल्लेखों के आधार पर कहा जाता है कि ब्राह्मणों को अपराधी होने पर कम दण्ड तथा उनके विरूद्ध अपराध करने वाले को कठोर दण्ड दिया जाता था.
हम सभी आज सुरक्षित हैं क्योंकि सातवाहन राजाओं ने शक, यवन (आगरी/काळण), कुषाण और हूण सहित अन्य विदेशी आक्रमणों को हराकर महाराष्ट्र और पूरे हिंदुस्तान की रक्षा की थी।
ओर आजभी हम सब हिंदुस्तानी देश वासियोंको यही करना हें।
हिंदू क्षत्रिय मराठा, ब्राह्मण, राजपूत, अहीर, जाट, पटेल, गुर्जर और आदिवासी समुदाय के सदस्यों से हिंदू क्षत्रिय मराठा सातवाहन साम्राज्य की रक्षा के लिए एकजुट होना चाहीए और सुयश शिर्केसातवाहन ( शिवभगवान सातवाहनओं के वंशज) के मराठा सातवाहन समाज सेना में शामिल होने का आग्रह किया जाता है। ओर समुदाय के सदस्यों को वेबसाइट https://play.google.com/store/apps/details... पर भी सामिल होना चाहिए।
सुयश शिर्केसातवाहन(शिवभगवान सातवाहन राजाओं के वंशज)©®

सोमवार, ५ जून, २०२३

संपूर्ण महागाथा मराठाशाहीची भाग १००

 

संपूर्ण महागाथा मराठाशाहीची
संग्राहक ::विनोद जाधव




भाग १००
कान्हेरी लेणी (Kanheri Rock-cut caves)
बौद्धमताचे एक प्रसिद्ध केंद्र व मठ. कान्हेरी लेणी मुंबईपासून सु. ३२ किमी., ठाण्यापासून सु. ८ किमी., तर मुंबई उपनगरातील बोरीवलीपासून पुढे ६ किमी. अंतरावर संजय गांधी राष्ट्रीय उद्यानात आहेत. येथे सु. शंभराच्या वर बौद्ध धर्मीय लेणी असून त्या साधारणतः इ. स. पू. पहिल्या शतकापासून ते सातव्या-आठव्या शतकांदरम्यान खोदल्या आहेत. पुढे सु. पंधराव्या शतकापर्यंत या लेणींचा वापर भिक्षूंनी केलेला दिसतो. कान्हेरीचा प्राचीन उल्लेख येथूनच प्राप्त झालेल्या शिलालेख व ताम्रपटात ‘कन्हगिरी’ व ‘कृष्णगिरी’ असा आहे. हीनयान (थेरवाद), महायान आणि वज्रयान संप्रदायाचा पगडा या लेणींवर दिसून येतो. येथील लेण्यांत शंभरावर अभिलेख असून काही भित्तिचित्रेही आहेत. उत्कृष्ट जल व्यवस्थापन, दुर्मीळ बौद्ध शिल्पे व विशिष्ट लयन स्थापत्य रचना ही या लेण्यांची प्रमुख वैशिष्ट्ये.
लेणी क्र. १, कान्हेरी.
कान्हेरी लेणींचे प्रारंभिक उल्लेख संभवतः इ. स. ३९९–४११ या कालावधीत भारत भेटीस आलेल्या फाहियानच्या वृत्तांतात मिळतात. यानंतर या लेणींचा अभ्यास व संशोधन कार्य गार्सिया दा ऑर्टा (१५३४), जाओ दे कॅस्ट्रो (१५३९), डायगो दा कौटो (१६०३), फ्रायर (१६७५), जेम्स बर्ड (१८४७), जे. स्टिव्हन्सन (१८५२ व १८५३), वेस्ट (१८६०), भाऊ दाजी लाड (१८६४-६६), जेम्स बर्जेस व भगवानलाल इंद्रजी (१८८१), ब्यूलर (१८८३), ल्युडर्स (१९११), एम. जी. दीक्षित (१९४२), व्ही. व्ही. मिराशी (१९५५), शोभना गोखले (१९७६), एस. नागराजू (१९८१), सुरज पंडित (२००५; २०१२), एम. के. ढवळीकर (२०१६) अशा अनेक विद्वानांनी केले आहे.
लेणी क्र. ३, कान्हेरी.
येथील लेणी दक्षिणेकडील डोंगर उतारावर वेगवेगळ्या स्तरांवर खोदण्यात आलेली आहेत. बहुतेक लेणींत शिलालेख आढळून येतात. त्यांचा मुख्य विषय विविध भिक्षू आणि उपासकांनी लेणी व संबंधित कार्यांसाठी दिलेल्या दानधर्माचा व भेटीगाठींचा आहे.
एम. के. ढवळीकर यांनी या लेणींचे शैलीगत वैशिष्ट्य व शिलालेखांवरून ठळकपणे तीन कालखंड केले आहेत. १) हीनयान लेणी (इ. स. सु. १५०–२००), २) प्रारंभिक महायान लेणी (इ. स. २००–३५०) व ३) नंतरच्या महायान लेणी (इ. स. सु. ४५०–७००). कान्हेरी लेणींचा आराखडा पाहता, या प्रामुख्याने सहा समूहांत टेकड्यांच्या संरचनेचा विचार करून खोदण्यात आलेल्या दिसतात. यात समूह क्र. १ ते ६ मध्ये क्रमशः लेणी क्र. २ ते ७, १४ ते ३०, ४९ ते ७०, ३१ ते ४०, ८८ ते ९३ व ८ ते १२ यांचा समावेश होतो. येथील बहुतेक लेणींची रचना खोल्यांसह मंडप, बाक व समोर व्हरांडा अशी आहे. अशा प्रकारची रचना भारतीय लयन स्थापत्याच्या इतिहासात अद्वितीय मानली जाते. बहुतेक शिल्पे मूळतः प्रारंभिक काळात खोदलेल्या लेणींमध्ये मागावून ५-६ व्या शतकात नव्याने कोरलेली आढळून येतात. काही लेणींची संपूर्ण भिंतच शिल्पांनी व्यापलेली दिसते.
चैत्यगृह, लेणी क्र. ३, कान्हेरी.
पहिला कालखंड : लेणी क्र. २ ते ७ या लेणींत बुद्ध अथवा बोधिसत्त्वांच्या प्रतिमा नसल्याकारणाने (लेणी क्र. २, ३, व ५ वगळता), यांना पहिल्या कालखंडात ठेवता येते. अभिलेखीय पुराव्यानुसार कान्हेरीमध्ये सर्वप्रथम दुसऱ्या शतकाच्या मध्यात क्र. ५ मध्ये पाण्याची एक पोढी खोदण्यात आली. यानंतर बहुधा दुसऱ्या शतकाच्या मध्यावधीत क्र. ३ चा चैत्यगृह खोदण्यात आला. हे कान्हेरीतील एक अतिभव्य व महत्त्वपूर्ण लेणे आहे. यातील चैत्य व्यवस्थित कोरला असला, तरी तो मंडपाच्या संरचनेत लेणे क्र. ४ चे स्थान जवळच असल्याने व्यवस्थित बसत नाही. हा स्तंभयुक्त चैत्यगृह २६.३६ X १३.६६ मी. व उंचीला १२.९ मी. असून आकाराने कार्ला येथील चैत्यापेक्षा थोडासा लहान आहे. लेण्याबाहेर समोरच विटांच्या एका स्तूपाचे अवशेष आहेत. या लेण्याच्या प्रवेशद्वारावर दोन्ही बाजूंना दोन द्वारपाल असून, व्हरांड्यातील दक्षिण स्तंभावर दुसऱ्या शतकाच्या उत्तरार्धात कोरलेल्या, पश्चिम भारतातील सर्वांत प्राचीन ज्ञात दोन लहानशा बुद्ध प्रतिमा आहेत. या लेण्यात ५-६ व्या शतकातील बुद्धाच्या विराट प्रतिमेसह इतर बुद्ध व बोधिसत्त्वांच्या प्रतिमाही कोरण्यात आलेल्या आहेत. याशिवाय या लेण्यात यक्षसदृश्य शिल्प, पाच फण्यांयुक्त नाग व मिथुन शिल्पे आहेत.
बुद्धमूर्ती, लेणी क्र. ३, कान्हेरी.
लेणी क्र. ‘२ एʼ ते ‘२ एफʼ हा सहा लेणींचा एक समूह असून ‘२ सीʼ, ‘२ डीʼ व ‘२ इʼ मध्ये स्तूप आहेत. लेणे क्र. ‘२ एफʼ हे विहार लेणे असून आकाराने मोठे आहे. ढवळीकरांच्या मते, लेणे क्र. ७ चा तलविन्यास लेणे क्र. ‘२ एफʼ सारखाच असून भिक्षुंसाठी खोदण्यात आलेला कान्हेरी येथील हा सर्वांत प्राचीन विहार आहे. लेणे क्र. ४ एक सपाट छतयुक्त गोलाकार चैत्य आहे.
दुसरा कालखंड : या कालखंडात, समूह क्र. २ ते ५ मधील लेणींचा प्रामुख्याने समावेश केला जातो. कान्हेरी येथील बहुतेक लेणी, प्रारंभिक महायान कालखंडात (इ. स. २००–३५०) खोदण्यात आलेली आहेत. दुसऱ्या समूहातील लेणी क्र. १४ ते ३० उत्तरेकडील टेकडीत ओढ्याच्या (जलप्रवाह) उत्तरेला आहेत. हीनयान संप्रदायाचा हा शेवटचा कालखंड समजला जातो. या कालखंडातील लेणी पहिल्या कालखंडातील लेणींजवळ स्थित आहेत. या कालखंडातील प्राचीनतम लेणे, २१ क्रमांकाचा सुनियोजित विहार आहे. हे लेणे इ. स. सु. १८६ मधील असून लेणे क्र. २२ शी मिळते-जुळते आहे.
तिसऱ्या समूहातील लेणी क्र. ४९ ते ७० दक्षिणेकडील डोंगरभागावर तिसऱ्या शतकाच्या उत्तरार्धात खोदलेली आहेत. या समूहातील बहुतेक लेणी किरकोळ फरक वगळता एक सारखीच आहेत. या लेणी सातवाहन काळातील शेवटच्या टप्प्यातील समजल्या जातात.
लेणे क्र. ५० सुद्धा कान्हेरीतील दुसऱ्या कालखंडातील एक महत्त्वाचे लेणे असून, यात शिलालेखही आहे. लेणे क्र. ६५ मधील शिलालेखात एका महिला भिक्षुणीने ‘अपरासेलिय’ नामक पंथातील भिक्षूंसाठी लेणे व पोढी दान दिल्याचा उल्लेख आहे. लेणे क्र. ६७ मध्ये दीपांकर बुद्ध, बुद्ध, मानुषी बुद्ध, मैत्रेय, बोधिसत्त्व व इतर शिल्पे आहेत. येथील शिल्पांवरती रंगकाम केल्याच्या खुणा आढळून येतात.
चौथ्या समूहातील (३१ ते ४०) लेणींच्या तलविन्यासांत विविधता आढळते. यांच्या मागील बाजूस गाभारा असून, पूजेसाठी देवता कोरलेली दिसत नाही. या समूहातील लेणी, लयन स्थापत्य विकासक्रमातील पुढील टप्पा दर्शवितात. बहुतेक विहारांमध्ये आता स्वतंत्र गाभारे (गर्भगृह) दिसायला लागतात. यातील बहुतेक लेणी तिसऱ्या शतकाशी संबंधित आहेत. लेणे क्र. ३२ परिपूर्ण असून येथे कान्हेरी समूहातील एक संपूर्ण विहार दिसून येतो. या समूहात वेदिका पट्टी व वाळूचे घड्याळ (hour glass) सदृश्य सजावट पहिल्यांदाच दिसून येते. येथून तारा या बौद्ध देवतेची एक लाकडी प्रतिमा प्राप्त झाली होती. हे लेणे ‘भद्रयानिय’ पंथाच्या भिक्षूंसाठी दान दिले होते, हे विशेष. या पंथाचे नाव चैत्यलेणे क्र. ३ व लेणे क्र. ५० मध्येही आढळते.
पाचवा समूहही दक्षिणेकडील डोंगरभागावरच असून चौथ्या समूहाच्या थोड्याशा पूर्वेला आहे. या समूहातील लेणी क्र. ८४-८७ ‘निर्वाण विथी’ समजली जातात. ही लेणी, चैत्यलेणे क्र. ३ च्या दक्षिणेला दीड किमी. अंतरावर असून एका विशाल शैलाश्रयात खोदण्यात आलेली आहेत. यात सु. ६० बांधीव स्तूप आहेत, जे कान्हेरीत निर्वाणप्राप्त भिक्षूंच्या स्मृतिप्रित्यर्थ बांधले असावेत. या परिसरातून १९७५ साली शोभना गोखले यांना सु. ६ व्या शतकातील प्रसिद्ध आचार्यांची नावे असलेले प्राकृत भाषेतील १८ ब्राह्मी शिलालेख प्राप्त झाले होते. लेणे क्र. ९० मध्ये ३ पहलवी (११ वे शतक) आणि २ जपानी शिलालेख आढळून आले आहेत.
एकादशमुखी अवलोकितेश्वराचे एक शिल्प, लेणे क्र. ४१ च्या प्रांगणातील एका छोट्या कक्षात कोरलेले आहे. ही या देवतेची जगातील सर्वांत प्राचीन ज्ञात दगडी मूर्ती मानली जाते.
तिसरा कालखंड : (सु. ४५०—७००). सहाव्या समूहातील लेणी (८ ते १२) ज्यावेळी खोदण्यात आली, त्यावेळी काही आद्य लेणींमध्ये नव्याने काही शिल्पे कोरण्यात आली. तसेच काही भित्तिचित्रेही रेखाटण्यात आली. या समूहातील लेणी, वरील समूहात जागा उपलब्ध झालेल्या ठिकाणी खोदण्यात आली असून, यातील शिल्पकाम ५ ते ६ व्या शतकाशी सुसंगत आहे. यावेळी कोकणात त्रैकुटकांचे राज्य नांदत होते. यानंतर विशेष असे लेणी-खोदकाम हाती घेण्यात आलेले दिसत नाही.
क्र. ८ ही एक पोढी असून यात लहान खोल्या पाहावयास मिळतात. लेणे क्र. ११ हे कान्हेरीतील सर्वांत विशाल लेणे असून ‘दरबार लेणे’ या नावानेही प्रसिद्ध आहे. यात एक गाभारा व भिक्षूंसाठी खोल्या आहेत. यात बुद्ध, अवलोकितेश्वर, पद्मपाणी इ. प्रतिमा आहेत. हा विहार वेरूळ येथील लेणे क्र. ५ सारखा असून सातव्या शतकात खोदला गेला आहे. यात शिलाहार राजा कापार्दिनच्या काळातील एक शिलालेख असून यात या लेण्याला ‘श्री कृष्णगिरी महाराज महाविहार’ असे संबोधित केले आहे. तिसऱ्या कालखंडातील लेणींत बोधिसत्त्व, ध्यानी बुद्ध, अक्षोभ्य, तारा व भृकुटी इ. महत्त्वाची शिल्पे आढळतात.
लेणे क्र. ३४ मध्ये सु. सहाव्या शतकातील अर्धवट भित्तिचित्रे आहेत. लेणे क्र. ४१ मध्ये व्याख्यान मुद्रेतील बुद्ध (अमिताभ) प्रतिमेसह इतर प्रतिमा पाहायला मिळतात. लेणे क्र. १ अर्धवट असून कान्हेरीतील सर्वांत शेवटी खोदण्यात आलेले लेणे आहे. लेणे क्र. ९३ मध्ये बुद्धांची ‘मुचलिंद’ नागासह एक सुंदर मूर्ती दिसते.
सातव्या शतकात चिनी बौद्ध भिक्षू ह्यूएनत्संग याने या लेणींना भेट दिली होती. कान्हेरी एक शिक्षा केंद्र होते, जेथे प्रसिद्ध आचार्य निवास करीत असत. श्रेष्ठ बौद्ध तत्त्वज्ञ आचार्य ‘दीपांकर’,‘अचल’ आणि ‘दिन्नाग’यांचे वास्तव्य काही काळ येथे होते.
संदर्भ :
Dhavalikar, M. K. Cultural Heritage of Mumbai, Mumbai, 2016.
Gokhale, Shobhana, Kanheri Inscriptions, Pune, 1991.
Nagaraju, S. Buddhist Architecture of Western India (B.C.250-300 AD), Delhi, 1981.
Pandit, Suraj & Narayan, Arun, Stories in Stone (Historic Caves of Mumbai), Mumbai, 2013.

संपूर्ण महागाथा मराठाशाहीची भाग ९९

 

संपूर्ण महागाथा मराठाशाहीची
संग्राहक ::विनोद जाधव

भाग ९९
सातवाहन वंश के शासक (हिंदी माहिती )--------३
हाल (20 ई0पू0 - 24 ई0पू0)
हाल सातवाहनों का अगला महत्पूर्ण शासक था। यद्यपि उसने केवल चार वर्ष ही शासन किया तथापि कुछ विषयों उसका शासन काल बहुत महत्वपूर्ण रहा। ऐसा माना जाता है कि यदि आरम्भिक सातवाहन शासकों में शातकर्णी प्रथम योद्धा के रूप में सबसे महान था तो हाल शांतिदूत के रूप में अग्रणी था। हाल साहित्यिक अभिरूचि भी रखता था तथा एक कवि सम्राट के रूप में प्रख्यात हुआ। उसके नाम का उल्लेख पुराण, लीलावती, सप्तशती, अभिधान चिन्तामणि आदि ग्रन्थों में हुआ है। यह माना जाता है कि प्राकृत भाषा में लिखी गाथा सप्तशती अथवा सतसई (सात सौ श्लोकों से पूर्ण) का रचियता हाल ही था। बृहदकथा के लेखक गुणाढ्य भी हाल का समकालीन था तथा कदाचित पैशाची भाषा में लिखी इस पुस्तक की रचना उसने हाल ही के संरक्षण में की थी। कालानतर में बुद्धस्वामी की बृहदकथा'यलोक-संग्रह, क्षेमेन्द्र की बृहदकथा-मंजरी तथा सोमदेव की कथासरितसागर नामक तीन ग्रन्थों की उत्पति गुणाढ्य की बृहदकथा से ही हुई।
हाल के प्रधान सेनापति विजयानन्द ने अपने स्वामी के आदेशानुसार श्रीलंका पर आक्रमण कर उसे जीत लिया। इस विजय अभियान से वापिस लौटते समय वह कुछ समय के लिये सप्त गोदावरी भीमम् नामक स्थान पर रूका। वहाँ विजयानन्द ने श्रीलंका के राजा की अति रूपवान पुत्री लीलावती की चर्चा सुनी जिसका वर्णन उसने अपने राजा हाल से किया। हाल ने प्रयास कर लीलावती से विवाह कर लिया। किवदंती है कि हाल ने पूर्वी दक्कन में कुछ सैनिक अभियान किये परन्तु साक्ष्यों के अभाव में अधिकतर विद्वान इसे गलत मानते हैं। यद्यपि हाल तक के सातवाहन शासकों के शासनकाल में राजनैतिक क्षेत्र के अतिरिक्त साहित्यिक तथा आर्थिक क्षेत्रों में भी अत्याधिक विकास हुआ तथा व्यपार-वाणिज्य शहरों के विकास एवं जलपरिवहन की उन्नति हुई जो कि प्रथम शताब्दी ई0 के दूसरे मुण्डलक अथवा पुरिद्रंसेन के शासन काल में अपने उत्कर्ष की पराकाष्ठा पर पहुँच गई, तथापि आने वाले लगभग पचास वर्ष सातवाहन साम्राज्य के लिए बड़े ही कठिन साबित हुए। ऐसा प्रतीत हुआ मानो के पश्चिम क्षत्रपों के रूप में हुए विदेशी आक्रमण के साथ ही सातवाहन साम्राज्य का पतन होने को है। कुषाण उत्तर-पश्चिम में अपना प्रसार कर रहे थे तथा उनके दबाव में शक तथा पहलाव शासक मध्य तथा पश्चिमी भारत की ओर आकर्षित होकर सातवाहनों से संघर्ष करने को आतुर थे। क्षहरात वंश के पश्चिमी क्षत्रपों ने अपने को पश्चिमा राजपुताना, गुजरात तथा काठियावाड़ में स्थापित कर लिया था। इन शक शासकों ने 35 ई0 से लेकर लगभग 90ई0 तक सातवाहन राज्य पर आक्रमण किये। उन्होंने सातवाहनों से पूर्वी तथा पयिचमा मालवा प्रदेशों को जीता; उत्तरी कोंकण (अपरान्त) उत्तरी महाराष्ट्र, जो कि सातवाहन शक्ति का केन्द्र था तथा बनवासी (वैजयन्ती) तक फैले दक्षिणी महाराष्ट्र पर भी अपना प्रभुत्व जमा लिया। क्षहरात वंश का पहला शासक घूमक था जिसकी जानकारी के स्रोत कुछ सिक्कें है जो कि अधिकांशतः गुजरात काठियावाड़ के तटीय प्रदेश तथा यदाकदा मालवा से पाए हैं। घूमक का उत्तराधिकारी नहपान था जिसकी जानकारी हमें उसके बहुसंख्य सिक्कों पर राजा (अथवा राजन्) की उपाधि धारण की है। वहीं शिलालेखों उसकी उपाधि क्षत्रप तथा महाक्षत्रप मिली। नासिक, कारले तथा जुनार (उत्तरी महाराष्ट्र) के उसके शिलालेख; एसके बहुसंख्य सिक्कें तथा उसके जामाता शक अशवदात के द्वारा उत्तरी तथा दक्षिणी भारत में दिए गए दान सब के सब ये प्रमाणित करते हैं कि नहपान के समय में क्षहरात वंश का साम्राज्य काफी विस्तुत था तथा उसने सातवाहन शासकों से काफी बड़ा प्रदेश छीन कर ही अपने साम्राज्य को इतना विशाल बनाया था। नहपान तथा उसके जामाता शक अशवदत ने मालवा, नर्मदा घाटी, उत्तरी कोंकण, बरार का पश्चिमा भाग एवं और दक्षिणी महाराष्ट्र को जीतकर पश्चिमी दक्कन में सातवाहन शक्ति को ल्रभ्र उखाड़ फैंका। वे सातवाहन राजा जो नहपान के हाथों पराजित हुए कदाचित सुन्दर शातकर्णी, चकोर शातकर्णी तथा शिवसाती थे जिनका कि कार्यकाल बहुत ही छोटा था (इनमें से पहले दो का शासन काल मात्रा डेढ़ वर्ष था) परन्तु यह परिस्थितियां अधिक समय तक नही चली तथा गौतमी पुत्र श्री शातकर्णी के सातवाहन शासक बनते ही इस क्षहरात-सातवाहन संघर्ष में नया मोड़ आया।

संपूर्ण महागाथा मराठाशाहीची भाग ९८

 

संपूर्ण महागाथा मराठाशाहीची
संग्राहक ::विनोद जाधव

भाग ९८
सातवाहन वंश के शासक (हिंदी माहिती )--------२
वेदश्री तथा सतश्री (अथवा शक्ति श्री)
शातकर्णी प्रथम की मृत्यु के पश्चात उसके दो अल्पव्यस्क पुत्र वेदश्री तथा सतश्री सिंहासन पर बैठे। परन्तु अल्पव्यस्क होने के कारण प्रशासन की सारी बागडोर उनकी मां नयनिका के हाथों में आ गई जिसने अपने पिता की सहायता से शासन चलाया। ऐसा प्रतीत होता है कि वेदश्री की अल्पायु में ही मृत्यु हो गई तथा सतश्री ने उसके उत्तराधिकारी के रूप में शासन संभाला। परन्तु पुराण इस विषय में एकमत है कि शातकर्णी प्रथम के पश्चात् पूर्णोत्संग नामक राजा सातवाहन सिंहासन पर आसीन हुआ। चाहे चतुर्थ सातवाहन शासक का नाम कुछ भी रहा हो, यह तो निश्चित है कि इस शासक के शासन काल में ही पुष्यमित्र शुंग ने अंतिम मौर्य शासक ब्रहद्रथ को मार कर मगध राज्य पर अधिकार कर लिया था। मत्स्यपुराण में स्कन्दस्तम्भी का उल्लेख सातवाहन वंश के पाँचवें शासक के रूप में केया है परन्तु अधिकतर विद्वान इस नाम को कल्पित मानते हैं।
शातकर्णी द्वितिय
शातकर्णी द्वितिय ने लगभग 166 ई0पू0 से लेकर 111 ई0पू0 तक शासन किया। यह कदाचित वही शासक था जिसका वर्णन हीथीगुम्फा तथा भीलसा शिलालेखों में हुआ है। यह प्रतीत होता है कि इसके शासन काल में सातवाहनों ने पूर्वी मालवा को पुष्यमित्र शुंग के एक उत्तराधिकारी से छीन लिया।
पुराणों के अनुसार शातकर्णी द्वितिय के पश्चात् लम्बोदर राजसिंहासन पर आसीन हुआ। लम्बोदर के पश्चात् उसका पुत्र अपीलक गद्दी पर बैठा। अपीलक जो कि आठवाँ सातवाहन शासक था, इन दोनां के मध्य का काल सातवाहनों के सन्दर्भ में अंधकार युग माना गया है जिसमें केवल कुन्तल शातकर्णी के काल को ही अपवाद माना जा सकता है। कुन्तल शातकर्णी, अपीलक के पश्चात् सातवाहनों का अगला महत्वपूर्ण शासक था। कामसूत्र में वात्सायन ने कुन्तल शातकर्णी का उल्लेख करते हुए लिखा है कि उसने अपनी उंगलियों को कैंची के रूप में प्रयोग किया तथा इसके प्रहार से उसकी पटरानी मलयवती की मृत्यु हो गई। काव्यमिंमाशा में राजेश्वर ने कुनतल शातकर्णी का वर्णन करते हुए कहा है कि उसने अपने रनिवास में रहने वाली अपनी रानियों को यह आदेश दिया था कि वे केवल प्राकृत भाषा का प्रयोग करें।

संपूर्ण महागाथा मराठाशाहीची भाग ९७

 

संपूर्ण महागाथा मराठाशाहीची
संग्राहक ::विनोद जाधव



भाग ९७
सातवाहन वंश के शासक (हिंदी माहिती )--------१
सातवाहन प्राचीन भारत का एक राजवंश था। इसने ईसापूर्व 230 से लेकर दूसरी सदी (ईसा के बाद) तक केन्द्रीय दक्षिण भारत पर राज किया। यह मौर्य वंश के पतन के बाद शक्तिशाली हुआ था। इनका उल्लेख 8वीं सदी ईसापूर्व में मिलता है। अशोक की मृत्यु (सन् 232 ईसापूर्व) के बाद सातवाहनों ने खुद को स्वतंत्र घोषित कर दिया था। सीसे का सिक्का चलाने वाला पहला वंश सातवाहन वंश था, और वह सीसे का सिक्का रोम से लाया जाता था।
शासक
सिमुक
सिमुक (235 ई0पू0 - 212 ई0पू0) सातवाहन वंश का संस्थापक था तथा उसने 235 ई0पू0 से लेकर 212ई0पू0 तक लगभग 23 वर्षों तक शासन किया। यद्यपि उसके विषय में हमें अधिक जानकारी नही मिलती तथापि पुराणों से हमें यह ज्ञात होता है कि कण्व शासकों की शक्ति का नाश कर तथा बचे हुए शुंग मुखियाओं का दमन करके उसने सातवाहन वंश की नींव रखी। पुराणों में उसे सिमेक के अतिरिक्त शिशुक, सिन्धुक तथा शिप्रक आदि नामों से भी पुकारा गया है। जैन अनुश्रुतियों के अनुसार सिमुक ने अपने शासन काल में जैन तथा बौद्ध मन्दिरों का निर्माण करवाया, परन्तु अपने शासन काल के अन्तकाल में वह पथभ्रष्ट तथा क्रुर हो गया जिस कारणवश उसे पदच्युत कर उसकी हत्या कर दी।
कान्हा तथा कृष्ण (212ई0पू0 - 195ई0पू0)
सिमुक की मृत्यु के पश्चात उसका छोटा भाई कान्हा (कृष्ण) राजगद्दी पर बैठा। अपने 18 वर्षों के कार्यकाल में कान्हा ने साम्राज्य विसतार की नीति को अपनाया। नासिक के शिलालेख से यह पता चलता है कि कान्हा के समय में सातवाहन साम्राज्य पश्चिम में नासिक तक फैल गया था। शातकर्णी-प् (प्रथम) कान्हा के उपरान्त शातकर्णी प्रथम गद्दी पर बैठा। पुराणों के अनुसार वह कान्हा पुत्र था। परन्तु डॉ॰ गोपालचारी सिमुक को शातकर्णी प्रथम का पिता मानते हैं। कुछ विद्वानों ने यह माना है कि इसका शासन काल मात्रा दो वर्ष रहा परन्तु नीलकण्ठ शास्त्री ने उसका शासन काल 194 ई0पू0 से लेकर 185 ई0पू0 माना है। जो भी हो यह सुस्पष्ट है कि उसका शासन काल बहुत लम्बा नही था। परन्तु छोटा होते हुए भी शातकर्णी प्रथम का कार्यकाल कुछ दृष्टिकोणों से बड़ा महत्वपूर्ण है। सातवाहन शासकों में वह पहला था जिसने इस वंश के शासकों में प्रिय एवं प्रचलित, ''शातकर्णी'' शब्द से अपना नामकरण किया। नानाघाट शिलालेख के अनुसार शातकर्णी ने अपने साम्राज्य का खुब विस्तार किया तथा अपने कार्य काल में दो अश्वमेघ यज्ञ तथा एक राजसुय यज्ञ किया। उसकी रानी नयनिका के एक शिलालेख से हमें यह ज्ञात होता है कि शातकर्णी प्रथम ने पश्चिमी मालवा के साथ-साथ अनुप (नर्मदा घाटी का क्षेत्र) तथा विदर्भ (बरार) प्रदेशों भी जीत लिया। यदि शातकर्णी प्रथम ही वह शासक है जिसका उल्लेख सांची स्तूप के तोरण में हुआ है तो यह भी इस बात को प्रमाणित करता है कि उसके समय में मध्य भारत सातवाहनों के अधिकार में था। वह अपने छाटे से कार्य काल मे सम्राट बन गया तथा उसने दक्षिण पथपति तथा अप्रतिहत चक्र आदि उपाधियाँ धारण की। नानाघाट लेख तथा हाथी गुम्फा लेखों में प्रयुक्त लिपि की समानता के आधार पर ही यह सुझाया गया है कि कदाचित इसी शातकर्णी शासकों के शासन काल के दूसरे वर्ष में कलिंग के महान शासक खारखेल ने युद्ध क्षेत्र में हराया था। शातकर्णी प्रथम की पत्नी नयनिका अथवा नागनिका अंगीय कुल के एक महारथी त्रणकाइरो की पुत्री थी।

संपूर्ण महागाथा मराठाशाहीची भाग ९६

 

संपूर्ण महागाथा मराठाशाहीची
संग्राहक ::विनोद जाधव




भाग ९६
सिमुक सातवाहन ,हाल सातवाहन,मेघस्वाती
सिमुक हा सातवाहन साम्राज्याचा संस्थापक होय. याने इ.स.पू. २३० ते इ.स.पू. २०७ या कालखंडात प्रतिष्ठान व माळवा या प्रदेशांत राज्य केले. पुराणांमध्ये सिशुक, तसेच सिंधुक या नावांनीही याचे उल्लेख आढळतात[ संदर्भ हवा ].
सिमुकानंतर त्याचा भाऊ कृष्ण सत्तेवर (राज्यकाळ: इ.स.पू. २०७ - इ.स.पू. १८९) आला. कृष्णाच्या काळात सातवाहनांची सत्ता पश्चिमेस व दक्षिणेस विस्तारली.
हाल सातवाहन
हाल हा सातवाहन साम्राज्याचा सम्राट होता. मत्स्य पुराणानुसार हा सातवाहनांचा १७वा राजा होता[१]. याने इ.स. २० ते इ.स. २४ या कालखंडात राज्य केले. महाराष्ट्री प्राकृत भाषेतील गाहासत्तसई (गाथासप्तशती) नामक काव्यसंग्रहाचा हा रचनाकार असल्याचे मानले जाते
संदर्भ व नोंदी
रायचौधुरी, एच.पी. पॉलिटिकल हिस्टरी ऑफ एन्शियंट इंडिया (इंग्लिश भाषेत). p. ३६१.
मेघस्वाती
मेघस्वाती हा सातवाहन राजवंशातील राजा होता. याचा राज्यकाल इ.स.पू. ५५ ते इ.स.पू. ३७ पर्यंत होता.त्याचे एक नाणे आंध्र येथे सापडले आहे
संदर्भ आणि नोंदी

संपूर्ण महागाथा मराठाशाहीची भाग ९५

 

संपूर्ण महागाथा मराठाशाहीची
संग्राहक ::विनोद जाधव

भाग ९५
वासिष्ठीपुत्र पुलुमावी
वासिष्ठीपुत्र पुलुमावी (मराठी लेखनभेद: वासिष्ठीपुत्र पुलुमावि) हा सातवाहन सम्राट होता. हा सातवाहन सम्राट गौतमीपुत्र सातकर्णी याचा पुत्र होता. गौतमीपुत्र सातकर्णीनंतर इ.स. १३२ सालाच्या सुमारास हा सातवाहनांचा राजा झाला.
कारकीर्द
याच्या कारकिर्दीत क्षत्रपांनी उठाव करून नर्मदेच्या उत्तरेकडील भूप्रदेश व उत्तर कोकण जिंकून घेतले. वासिष्ठीपुत्र पुलुमावी आणि रूद्रदामन (उज्जैनचा क्षत्रप राजा) यांच्यात दोनदा युद्ध झाले. या दोन्ही युद्धांत रूद्रदामनाने वासिष्ठीपुत्र पुलुमावीचा पराभव केला. परंतु त्याची कन्या वासिष्ठीपुत्र सातकर्णीस (पुलुमावीचा धाकटा भाऊ) दिलेली असल्याने क्षत्रपांनी तडजोड करून घेतली. वासिष्ठीपुत्र पुलुमावीने स्वतःचा मुखवटा असलेली चांदीची नाणी प्रचारात आणली.
संकीर्ण
टॉलेमी या ग्रीक प्रवाशाने प्रतिष्ठानचा सम्राट म्हणून वासिष्ठीपुत्र पुलुमावीचा (ग्रीक: सिरिस्तोलेमयोस, अर्थात श्री पुलुमायी) उल्लेख केलेला आहे[
ब्रिटिश संग्रहालयात असलेले वासिष्ठीपुत्र पुलुमावीचे चांदीचे नाणे

संपूर्ण महागाथा मराठाशाहीची भाग ९४

 

संपूर्ण महागाथा मराठाशाहीची
संग्राहक ::विनोद जाधव





भाग ९४
सातवाहन आणि नाणेघाटातील शिलालेख
पोस्तसांभार :: जयंत कुलकर्णी
आपल्यापैकी अनेकजण नाणे घाटात मुक्काम टाकतात. दरीतून वरती येणारे ढग कवेत घेतात, शूद्ध हवा छातीत भरून घेतात आणि त्या गुहेतल्या पवित्र आणि गुढ अशा वातावरणात निस्तब्ध होतात. त्या गुहेच्या दारात उभे राहून मग आपण खालून रस्त्याने येणार्या व्यापारांचा काफिला नजरे समोर आणू लागतो. दमलेले, तहानलेले ते जीव हळू हळू वर येत असतात आणि वर आल्यावर विश्रांतीसाठी आपली पथारी सोडतात, जेवणाचे डबे उघडतात आणि थंड पाणी पिऊन तृप्त होतात. सुखदु:खाच्या दोन गोष्टी बोलून पुढच्या मार्गाक्रमणाबद्द्ल चर्चा करतात. जकात रांजणात टाकून पुढची वाट धरतात. तेवढ्यात गार वार्याच्या स्पर्शाने आपण भानावर येतो आणि गुहेत शिरतो.
आपण त्या गुहेतल्या भिंतींवर असलेले लेखन बघून हे किती जूने आहे याबद्दल अचंबित होतो. मी जेव्हा लहानपणी, माझ्या आजोबांबरोबर (१९६५) या गुहेत मुक्काम ठोकला होता, तेव्हा या गुहेतल्या मूर्तीसुद्धा शाबूत होत्या. आपल्यातीलच कोणीतरी मग हळूच माहिती पुरवतो “ हे सातवाहन काळातील आहे” म्हणजे हे खूपच जुने आहे एवढेच आपल्याला समजते पण हे काय लिहीले आहे, याचे महत्व काय, हे आपल्याला ना त्यावेळी कोणी सांगू शकत आणि ना आपण त्याच्या मागे लागत कारण आपण परत आपल्या दैनंदिन कामात बुडून जातो. असो पण पुढच्यावेळी आपण नाणे घाटात त्या गुहेत मुक्काम ठोकलात तर आपल्याला असे वाटायची गरज नाही. आपल्यासाठी मी त्या शिलालेखाचे भाषांतर आणि थोडीफार माहीती देत आहे
या लिखाणात एकूण २० लेख आहेत. त्यातला शेवटचा नंतर लिहीलेला आहे. अगोदर हा शिलालेख किती जुना असावा याचा उहापोह करावा लागेल. शातवाहनांना पुराणात आंध्र असेही म्हटलेले आहे. आता हा आंध्र प्रदेश म्हणजे सध्याचा आंध्र प्रदेश असावा का ? याबद्दल काही विद्वानांचे असे म्हणणे आहे की हे राजे आंध्र मावळातले होते म्हणून त्यांचे असे नामकरण झाले. त्यांची सत्ता नंतर आंध्रात पसरलीही होती. पण ते मुळचे आंध्र मावळातले म्हणून ते आंध्र. मला स्वत:ला हेच बरोबर वाटते. कारण आंध्र मावळ म्हणून जो प्रांत ओळखला जातो तो या भागाला बराच जवळचा आहे.
सातवाहनांना प्राकृताचा व वैदिक धर्माचा भयंकर आभिमाम ! त्यांना स्वत:ला संस्कृत उत्तम येत असतानासुद्धा जनतेची लिपी म्हणून त्यांनी सर्व लेख प्राकृतात कोरवले. यांच्याच कुळात एक हाल नावाचा राजा होऊन गेला त्याने त्याच्या विशाल राज्यात दवंडी पिटवली की हालराजा एक काव्यसंग्रह संपादित करत आहे त्यासाठी सर्व नागरिकांनी काव्य पाठवावे. जे प्रचंड काव्य जमा झाले त्यातून गाथासप्तशती तयार झाली. श्री जोगळेकरांनी (कानाला हात लावण्याची स्माईली) या काव्यसंग्रहातून काय काय अर्थ काढता येतात याचे अतिउत्कृष्ठ उदाहरण त्यांच्या “ हाल सातवाहनाची गाथा सप्तशती या ग्रंथात घालून दिले आहे. या ग्रंथातले काव्य सामन्यजनांनी लिहिले असल्यामुळे त्याकाळातले समाज जीवन कसे होते यावर बराच प्रकाश त्यांनी टाकला आहे. तो वाचण्यासारखा आहे. त्यातून मी ही बराच अर्थ काढून ठेवला आहे पण तो परत कधीतरी. त्यातील दोन तीन कविता येथे देतो. त्या काळात म्हणजे जवळजवळ २२०० वर्षापूर्वी गावाकडे स्त्री पुरूषांमधे संबध फारच मोकळेपणाचे असत, त्यामुळे बर्याच गाथांमधे शृंगारीक वर्णने आढळतात. त्यामुळे नंतरच्या काळात झाले काय, ही गाथा एक फालतू काहीतरी शृंगारिक काव्य आहे असे विद्वान धर्ममार्तंडांचे म्हणणे पडले. खरे तर त्या समाजाचा ही गाथा म्हणजे आरसा आहे हे त्यावेळेस उमगले नाही. असो. आपण त्यातील काही काव्य बघूया व नंतर नाणेघाटातील लेख.
दुईक्ज्जाअण्णण्पडिरोहं मा करेहिइ इमं ति ।
उत्थंघेइ व तुरिअं तिस्सा कण्णुप्पलं पुलओ ॥
अर्थ : निरोप सांगणार्या सखीने प्रियकराचा निरोप सांगितला तेव्हा तिची काया रोमांचित झाली. त्यामुळे तिने कानावर खोवलेले कमळ जरा हलले. जणू काही त्या निरोपाच्या आड येऊ नये म्हणून ते बाजूला झाले.
उवहारिआइ समां पिंडारे उअ ! कहं कुणतम्मि ।
णववहुआइ सरोसं सव्व च्चिअ वछाआ मुक्का ॥
गवळ्याच्या घरी गवळण गाईंचे दुध काढायला आली आहे. गवळीबूवा तिच्याशी गुलू गुलू बोलताना बघून त्याच्या पत्नीला एवढा राग आला की तिने बांधलेली सर्व वासरे सोडून दिली. त्यामुळे तेथे एकच गोंधळ माजला आणि गवळीबुवांना गुपचुप गप्पा आवरत्या घ्यायला लागल्या. 🙂
पज्जालिऊण अग्गिं मुहेण पुत्तिए ! किणो समोसरसि ।
थणालसप्डिअपडिमा फुरंति ण छिवंती ते जाला ॥
हे सुंदरी तू फुंकर घातलीस आणि बघ तो अग्नी एकदम प्रज्वलित झाला. पण त्याने तुला एवढे दचकायचे कारण नाही. त्या ज्वाला जरी हालत आहेत, पण त्याने तुला काहीच अपाय होणार नाहीत. घाबरू नकोस तुझ्या उरोजावर पडली आहेत ती त्या ज्वाळांची प्रतिबिंबेच आहेत.
असो. हे थोडेसे विषयांतर झाले. यावर एकदा केव्हातरी लिहेन, पण ते फार मोठे होईल म्हणून तो विचार लांबणीवर टाकतो.
आता शिलालेख -
ओम्‌ नमो प्रजापति - प्रजापतिला नमस्कार असो.
नो धंमस नमो ईदस संकंसन वासुदेवानं चंदसूतानं - नमस्कार धर्माला, इंद्राला, संकर्षण वासुदेव यांना आणि चंद्रसूर्यांना !
..मा..अतानं – महिमावतांना
चतुंनं चं लोकपालानं यमवरून कुबेर वासवा - चारही लोकपालांना म्हणजे यम, वरूण, कुबेर, वासव
नंनमो – यांना नमस्कार.
कुमार-वरस वेदिसिरिस र..ओ – कुमारवर राजा वेदिश्री याची.
.....ईरस सूरस अप्रतिहतचकस दखि – वीराची शूराची अप्रतिहतकाची आणि दक्षिणपथाच्या
नापठ पतिनो – पतिची
मा....लाय – आईचा बालेचा
महारठिनो अंगिय-कुलवधनस सगरगिरिवर – महारठिचा अंगियकुलवर्धनाचा सागर आणि गिरिश्रेष्ठ यांनी वेढा घातलेल्या पृथ्वीच्या प्रथमविरांचा. ( हे वर्णन बघा . कसा आहे हा राजा ? तर हा महारथि अंगकुलाचा आहे. आणि ज्या पृथ्वीला सागर आणि डोंगरांनी वेढा घातलेला आहे अशा या पृथ्वीचा तो प्रथमवीर ( सगळ्यात शूर) आहे.
य व अलह....... सलसुर्य महतो मह......- अर्थ लागत नाही.
.....सिरिस भारिया देवस पुत्रदस वरदस – श्रीची भार्या देवाची पुत्रदाची, वरदाची
कामदस धनदस – कामदाची व धनदाची
वेदसिरि-मातू सतिनो सिरिमतस च मातुय – वेदसिरी आई शक्ती श्रीमान आई
सीम.....- सीम
पथमय ..... पुढे वाचता येत नाही...
५.
वरिय ......आ – अर्थ लागत नाही
नागवरद्यिनिय मासोपवासिनिय गह- - वंदनीय अशा नागश्रेष्ठ स्त्रीचे महिनाभर उपास
तापसाय चरित ब्रह्मचरियाय दिखव्रतयणं सुंडाय – गृहतापसीचे ब्रह्मचर्याचे आचरण ज्याने केले, दिक्षा, व्रत, यज्ञ यात कुशल आहे तिचे,
यणा हुता धूपनसुगंधानिय... – यज्ञात धूप सुगंध जिने हुत केले आहेत तिचे......
रायस यणेहि यिठं वनो – राजाचे यज्ञाने येथे ...
अगाधेय यंणो द्खिना दिना गावो बारस – अगाधेय यज्ञ. दक्षिणा दिली. गाई बारा.
असो च १ – अश्व १.
अनारभनियो यंणो दखिना धेनु – अन्वारंभणी यज्ञ दक्षिणा धेनु
..........दखिनायोदिना गावो १७०० हथी १० – दक्षिणेसाठी दिल्या गाई १७०० हत्ती १०
......स....ससतरय (ण) आसलठि २८९ – ससतरय यज्ञ आसलठि (?) २८९
कुब हियो रुपामयियो १७....भि..... – रुप्याची १७....
...रिको यंणो दखिनायो दिना गावो ११००० – पुंडरिक यज्ञ दक्षिणा दिली गाई ११०००
असा १००० पस.... – अश्व १००० प्रसर्पक....
१०
.....१२ गमवरो १ दखिना काहापना २४४०० – १२ गमवर १, दक्षिणा कार्षापण २४४००
पसपको काहापना ६००१ राज सूय यंणो - प्रसर्पकास काषार्पण ६००१, राजसूय यज्ञ...
.....सकट – (शकट) गाडी.
११
धंणगिरीतंसपयुतं सपटो १ असो १ असरयो – धान्यगिरी.....युक्त, वस्त्र, १ अश्व, १ अश्वरथ
१ गावीनं १०० – गाई १००
असमेधोबितियो यि ठो दखिनायो – दुसरा (पहिल्या नंतरचा) अश्वमेध येथे दक्षिणेसाठी दिले
ना असो रुपाल रो १, सुवंन....नि १२, - रुप्याचे अलंकार १, सोन्याचा नि.... १२
दखिना दिना काहापना ४००० गामो १ – दक्षिणा दिली कार्षापण ४०००, गाई १
हठि ....ना दिना – हत्ती दक्षिणा दिली.
१२
गावो... सकटं धणगिरीतम् समयुतं – गाई....शकट धान्यगिरी.....युक्त
१३
......१७ अच...न ....लय.... – १७ अच...न..
पसपको दिनो...दखिना दिना सु.. – प्रसर्पकास दिली दक्षिणा १२ सुपीनी
पीनी १२ तेस.
रूप आलं करो १ दखिना काहाप(ना) १००००.....२ – त्यास रुप्याचे दागिने १ व रुपये १००००,....२
१४
...गावो २०००० (भग)ल. – गाई २०,००० भगल.
दसरतो यज्ञ यू(इठो दखिना दि)ना गावो १०,००१ – दशरात्र यज्ञ द्क्षिणा दिली गाई १०००१.
गर्गतिरात्र यंणो यिठो दखिना... पसपको पटा ३०१ – गर्गतिरात्र यज्ञ जेथे दक्षिणा....प्रसर्पकास दिलेली वस्त्रे ३०१
गवामयनं यंणो यिठो (दखिना दिना) गावो ११०१ – गवामयन यज्ञ जेथे दक्षिणा दिली गाई ११०१
गावो ११०० पसपको काहापना पटा १००, १०० अतुयामो यंणो – गाई ११००, प्रसर्पक रुपये, वस्त्रे १०० आप्तोर्याम यज्ञ.
१५
...(ग)वामयन यंणो दखिना दिना गाओ ११०१ – गवामयन यज्ञ दक्षिणा दिली गाई ११०१
अंगिरस (आ)मयनं यंणो यिठो दखिनो गावो ११०१ – अंगिरसामयन यज्ञ दक्षिणा दिली गाई ११०१
त....(दखिना ह) इना गावो ११०१ – (बहुतेक) दक्षिणायन यज्ञ गाई ११०१
सतातिरतं यंणो....१०० – सत्रातिरात्र यज्ञ....१००...
...(यं)णो दखिना ग आ नो ११०० अंगिरस (ति)रतो – यज्ञ दक्षिणा गाई ११०० अंगिरसातिरात्र.
यंणो यिठो दखि..ना.. गावो १००१ – यज्ञ दक्षिणा दिली गाई १००१.
१६
....गवो १००२ – गाई १००२
छंदोमप (व) मा (नतिरतो) दखिना गावो १००१ – छंदोमपवमान्तिरात्र दक्षिणा गाई १००१
अंग (इ) र (सतिर) तो यं (णो यि) ठो द(खिना) – अंगिरसातिरात्र यज्ञ जेथे दक्षिणा......
...रतो यिठो यंणो दखिना दिना – रात्र जेथे यज्ञ दक्षिणा.....
तो यंणा यिठो दखिना - ..त्र.. यज्ञ जेथे दक्षिणा.
यंणो यिठो दखिना दिना गावो १००१ – यज्ञ दिली दक्षिणा गाई १००१
१७
...न सयं... – अर्थ लागत नाही
दखिना दिनो गावो...त.... – दक्षिणा दिली गाई...त...
(अं)गि(रसा)मयनं छवस ...(दखि)ना दिनो गावो १००० – अंगिरसामयन उत्सवाच्या दक्षिणा दिल्या गाई १०००
....दखिना दिना गावो १००१ तेरस....अ – द्क्षिणा दिलि गाई १००१ आणि तेराशे...अ
१८
....तेरसतो स... आग दिखना दिना गावो.....- तेराशे स... आग दक्षिणा दिली गाई....
दसरतो म(दि) ना गावो १००१ उ..... – दशरात्र म(रव) दिल्या गाई १००१
.....१००१ द – १००१ द
१९
.....यंणो दखिना दि(ना)----- यज्ञ दक्षिणा दिली...
२०
.....दखिना दिना – दक्षिणा दिली
राया सिमुक-सात वाहनो सिरिमातो – राजा सिमुक शातवाहन श्रीमान याचा.
देवि नायनिकाय रणो च सिर सातकनिनो. – देवी नायनिका राजा श्री शातकर्णी इचा.
कुमारो भाय....- कुमार भाय....
महारथि त्र्यणकयिरो – महारथि त्र्यणकयिर
कुमरो हकुसिरि.- कुमार हकुसिरि
कुमारो सातवाहनो- कुमार सातवाहन.
नंतर कोरलेला –
सोपारकस गोविंददास्स्स देयधम पोढि – सोपारकर गोविंददास याचा दानधर्म असलेली ही पाणयोपी ( पाणपोयी)
त्या काळात प्रजापति हा एक महत्चाचा देव असावा असे दिसते कारण त्याला पहिल्यांदा वंदन केले आहे. नंतर धर्माला म्हणजे महाभारतातला धर्मराज का “धर्म” याला हे कळत नाही. पण वेदकालीन देवतांना म्हणजे इंद्राला, यमाला, सूर्याला, चंद्राला, महिमावतांना, वरूण, कुबेर, व महाभारतकालिन कृष्णालाही वंदन केले आहे.
सातवाहनांना दक्षिणपथाचा राजा असे संबोधले आहे. याचा अर्थ दक्षिण दिशेच्या प्रदेशाचा राजा. या राज्याला सिमारेषा नाहीत. ते अवाढव्य आहे.
महारठिचा अंगियकुलवर्धनाचा ? हे अंगकुलातील होते काय हे शोधून काड्।आवे लागेल. तसे असेल तर हे नागवंशीय कसे हे ही बघावे लागेल.
आईला श्री म्हणायची ही पद्धत कधी लोप पावली कोणास ठाऊक.
पुंडरिक यज्ञ हा मोठा असावा, ज्यात ११००० गाई आणि घोडे १००० दान दिले गेले. या यज्ञाबद्दल काही माहिती मिळत नाही.
राजसूय यज्ञामधे गाडी घोडा दान द्यायची रीत असावी. तसेच त्याकाळी सुद्धा वर काहीतरी १/२/३ असे जास्त द्यायची पद्धत होती हे समजते.
अश्वमेध यज्ञात रथ आणि घोडा दान देण्यात येई. तर गाडी भरून धान्य देण्यात येई असे दिसते. असल्या महत्वाच्या यज्ञातच सोने दान केले जाई. त्या काळात हत्तीही मुबलक होते असे दिसते.
सातवाहन हे नागकुलातील असावेत म्हणून नागश्रेष्ठ असे म्हटले असावे. हुता हा शब्द आहूती ज्यातून आला तो असावा. म्हणजे यज्ञात सुगंधित धूपाची आहूती दिली आहे. म्हणजे २२०० वर्षापूर्वी धूप होता. धूप हा तयार करावा लागतो झाडापासून.
धेनू व गाई यातील फरक काय माहीत नाही.
रूपे आणि त्याची भांडी ही मला वाटते समुद्रामार्गे येत असावीत. त्याची दानधर्मात संख्या फारच कमी आहे. ते सहज मिळत नसावेत म्हणूनच महाग असावीत.
असा अर्थ बराच काढता येतो. बघा काढून ! हा एक यज्ञ लेख आहे त्यामुळे त्यात १८ प्रकारचे यज्ञांचा उल्लेख केला आहे. तुर्तास इतकेच पूरे.
जयंत कुलकर्णी.

संपूर्ण महागाथा मराठाशाहीची भाग ९३

 

संपूर्ण महागाथा मराठाशाहीची
संग्राहक ::विनोद जाधव


भाग ९३
सातवाहन आणि पश्चिमी क्षत्रप - राजकीय संघर्ष
पोस्तसांभार :: मिसळपाव
भाग
पुळुवामीनंतर गौतमीपुत्र श्रीयज्ञसातकर्णी हा गादीवर आला. हा सुद्धा स्वतःच्या नावापुढे गौतमीपुत्र असे बिरुद लावत असे. हा शेवटचा महाप्रतापी सातवाहन सम्राट. याने अपरान्ताचा गमावलेला प्रदेश पुन्हा एकदा रूद्रदामनाच्या वंशजांकडून जिंकून घेतला व सातवाहन राज्ये पुन्हा एकदा कळसास पोचवले. ह्याने सत्तावीस वर्षे राज्य केले व आपली सत्ता पश्चिमसमुद्रापासून पूर्वसागरापासून प्रस्थापित केली. विदिशा व काठेवाडापर्यंतही त्याचा अंमल असावा असे काही तेथे सापडलेल्या यज्ञ सातकर्णीच्या नाण्यांवरून दिसते. पुळुवामी आणि यज्ञसातकर्णीने शिडाच्या जहाजांची मुद्रा असलेली नाणी पाडली होती यावरून त्यांचे समुद्रावरचे प्रभुत्त्व सिद्ध होते.
वासिष्ठिपुत्र सातकर्णीचे शिडाच्या जहाजाची मुद्रा असलेले नाणे
श्री यज्ञ सातकर्णीनंतर मात्र सातवाहनांच्या साम्राज्याच्या र्हासाला प्रारंभ झाला. सातवाहनांची सामंत घराणी प्रबळ होत जाऊन त्यांनी पैठणची सातवाहनांची केंद्रिय सत्ता झुगारून दिली. व्यापारही बंद पडू लागल्याने सातवाहन साम्राज्य कमजोर होत गेले. उत्तरेत इशवदात (ईश्वरदत्त) महाक्षत्रपाने शके १५१ (सन. २२९) मध्ये पश्चिम महाराष्ट्रात सातवाहनांचा पाडाव करून सत्ता बळकावली. ह्या ईश्वरदत्ताने सुमारे २० वर्षे राज्य केले असावे. इस. २५० मध्ये पुन्हा एकदा राज्यक्रांती होऊन आभीरवंशीय ईश्वरसेनाने क्षत्रपांचा पराजय करून उत्तर-पश्चिम महाराष्ट्रात आपले राज्य स्थापन केले. याच्या आधीच इस. २३० मध्ये विदर्भातही सातवाहनांची सत्ता संपुष्टात येऊन मुंडवशीयांनी आपले राज्य स्थापन केले व सातवाहन पूर्णतः दक्षिणेत (आंध्रात) ढकलेले गेले व दक्षिणेतही थोडक्याच कालावधीत त्यांचा इक्ष्वाकूवंशी शतमूलाने पाडाव केला व सातवाहन सत्ता पूर्णपणे लयास गेली.
गुजरात, काठेवाड, माळवा ह्या पश्चिमेकडच्या प्रदेशात मात्र पश्चिमी क्षत्रपांचा अंमल गुप्तांच्या राजवटीपर्यंत चालू राहिला. समुद्रगुप्ताने विदिशेपर्यंत गुप्त साम्राज्य स्थापन केले व त्याच्या पुढे चंद्रगुप्ताने वाकाटक नृपतीची मदत घेऊन तृतीय रूद्रसिंह क्षत्रप याचे राज्य अनुमाने सन ३९५ मध्ये संपूर्णतः खालसा केले व क्षत्रपांच्या भरुकच्छ (भडोच) या राजधानीवर कब्जा केला व अशा तर्हेने जवळजवळ संपूर्ण उत्तर भारत आपल्या साम्राज्यात आणला व तत्पुर्वी खाली दक्षिणेत सातवाहनांची राजवट संपूर्ण नष्ट होऊन लहान लहान प्रांतिक राज्ये निर्माण होऊन दक्षिण भारताचा चेहरामोहरा बदलला.
अशा तर्हेने एक वैभवशाली राज्य समाप्त झाले. सातवाहनांनी विस्तृत प्रदेशात केवळ दिर्घकाळ राज्य केले इतकेच नव्हे तर स्थापत्य, कला, साहित्य, संस्कृती, शिल्प, चित्रकला यातही संस्मरणीय अशी प्रगती केली. व्यापारास उत्तेजन देऊन जनतेस सुखी, समृद्ध केले आणि परकियांशी प्राणपणाने लढून आपले गमावलेले राज्य परत मिळविले व मातृभूमीस स्वतंत्र केले. याकाळात सातवाहनांची सतत क्षत्रपांबरोबर लहानमोठी युद्धे होत राहिली. प्रदेश मिळवावे लागले, गमवावे लागले. इ.स.पू. २३० ते इ.स. २३० ह्या प्रदीर्घ कालावधीत त्यांनी महाराष्ट्र देशी तसेच आंध्रातही सत्ता टिकवून धरली व महाराष्ट्राचे पहिले स्वतंत्र ज्ञात राज्यकर्ते झाले. ह्या सातवाहनांनीच सह्याद्रीत बांधलेल्या बहुतांश किल्ल्यांचा वापर गुप्तांनी,चालुक्यांनी, राष्ट्रकूटांनी, शिलाहारांनी व नंतर यादवांनी केला तसेच अधिक किल्ले बनवून भरही घातली. यादवसत्तेच्या पाडावानंतर इस्लामी राज्यकर्त्यांनी मात्र हे किल्ले, येथील प्रदेश आपल्या साम्राज्यात आणिला पण पुढे ह्याच सह्याद्रीच्या एका सातवाहननिर्मीत शिवनेरी नामक दुर्गावर छ्त्रपती शिवाजी महाराजांचा जन्म झाला व पुढे ह्याच किल्ल्यांच्या सहाय्याने तसेच नवे किल्ले उभारून महाराष्ट्राला पुन्हा स्वराज्याचे दिवस दाखवले. असे सातवाहनांचे मोठे ऋण इये देशी आहे.

संपूर्ण महागाथा मराठाशाहीची भाग ९२

 

संपूर्ण महागाथा मराठाशाहीची
संग्राहक ::विनोद जाधव



भाग ९२
सातवाहन आणि पश्चिमी क्षत्रप - राजकीय संघर्ष
पोस्तसांभार :: मिसळपाव
भाग
नहपानाच्या पराभवानंतर स्वस्थ न बसता गौतमीपुत्राने आणखी मोहिमा उघडल्या व गुजरात, राजस्थान, ओरिसा, मध्यप्रदेश इ प्रदेशापर्यंत त्याचा राज्यविस्तार केला. ह्या पराक्रमामुळे त्याची किर्ती संपूर्ण भरतखंडात पोहोचली.
क्षहरात कूळ समूळ नष्ट केल्याबद्दल त्याला 'क्षहरात वंस निर्वंस करस' असे म्हटले गेले. त्याकाळी त्याच्या इतका सामर्थ्यवान राजा भारतात दुसरा नव्हता. सातवाहनांचा मूलप्रदेश नहपानाच्या हातून जिंकून घेऊन त्याने सातवाहनांची प्रतिष्ठा वाढवली म्हणून त्याचा 'सातवाहन यश प्रतिष्ठा करस'असा गौरवपूर्वक उल्लेख केला गेला आहे. 'ती समुद्द तोय पीतवाहन' म्हणजे ज्याची घोडी तीन समुद्रांचे पाणी पितात असेही त्याला म्हटले गेले. उत्तर,दक्षिण मोहिमांमध्ये गौतमीपुत्राने शक, यवन, पल्हव राज्यकर्त्यांचा पराभव केला म्हणून त्याला 'शक यवन पल्हव निदुसनस' असे म्हटले गेले आहे. सातवाहन राजे मराठा असून कट्टर वैदिक धर्माचे पुरस्कर्ते होते. गौतमीपुत्र सातकर्णी स्वत:ला येथील शिलालेखात 'मऱ्हाट ' अर्थात एक मराठा म्हणवतो. क्षत्रियांचे निर्दालन केल्याने त्याला 'खतियदपमानदम' असेही नाशिक शिलालेखात म्हटले आहे.
गौतमीपुत्रानंतर त्याचा पुत्र वासिष्ठिपुत्र पुळुवामी गादीवर आला. हा सुद्धा आपल्या पित्यासारखाच पराक्रमी होता. गौतमीपुत्राच्या निधनानंतर उज्जैनचा महाक्षत्रप कार्दमकवंशीय रूद्रदामन आणि सातवाहन यांच्यात सख्य होऊन रूद्रदामनाने आपली कन्या पुळुवामीला दिली. पण तरीही सातवाहन आणि क्षत्रपांमधले संघर्ष चालूच राहिले. वासिष्ठिपुत्र पुळुवामीला नर्मदेच्या उत्तरेचा प्रदेश आणि कोकणचा काही भाग गमवावा लागला. रूद्रदामनाने वासिष्ठिपुत्र पुळुवामीचा दोनदा पराजय केला पण तो जावई असल्यामुळे त्याचा समूळ उच्छेद केला नाही असे त्याने गौरवाने जुनागढच्या शिलालेखात कोरून ठेविले आहे. या शिलालेखातच पुळुवामीचा उल्लेख 'दक्षिणापथपति' असा केला आहे यावरून पुळुवामीच्या सामर्थ्याची कल्पना यावी. ह्याला उत्तरेकडचा थोडासा प्रदेश जरी गमवावा लागला असला तरी ह्याने दक्षिणेत प्रचंड विस्तार करून आख्खा दक्षिण भारत आपल्या ताब्यात आणला होता.

संपूर्ण महागाथा मराठाशाहीची भाग ९१

 

संपूर्ण महागाथा मराठाशाहीची
संग्राहक ::विनोद जाधव


भाग ९१
सातवाहन आणि पश्चिमी क्षत्रप - राजकीय संघर्ष
पोस्तसांभार :: मिसळपाव
भाग
शक क्षत्रपांच्या सततच्या हल्ल्यांनी जेरीस आल्यामुळे सातवाहनांची राज्यव्यवस्था खिळखिळी होऊन गेली. सह्याद्रीतील घाटमार्ग क्षत्रपांच्या ताब्यात गेल्यामुळे सातवाहनांकडे येणार्या संपत्तीचा ओघ खुंटला गेला. तत्कालिन सातवाहन नृपती शिवस्वातीच्या काळात सातवाहन राज्य गलितगात्र होऊन गेले. त्याच्या अमलाखाली फक्त दक्षिण महाराष्ट्राचा भूभाग राहिला होता असे दिसते. अशातच शिवस्वाती सातकर्णी याची पत्नी गौतमी बलश्री हिच्या पोटी एका पराक्रमी पुत्राचा जन्म झाला तोच गौतमीपुत्र सातकर्णी.
गौतमीपुत्र सातकर्णी अतिशय कुशल, धोरणी आणि महाप्रतापी होता. त्याने आपल्या कारकिर्दीच्या पंधरा सोळा वर्षात हळूहळू आपले सामर्थ्य वाढवत नेऊन परकी आक्रमकांच्या दास्यातून आपले साम्राज्य मुक्त करण्याचा निश्चय केला. सर्वप्रथम त्याने विदर्भावर स्वारी करून वेण्णा(वैनगंगा) नदीच्या काठावर असलेल्या पौनी (कुशावती) ह्या नगरीच्या क्षत्रपांचा उच्छेद केला व स्वतःला 'बेणाकटकस्वामी' म्हणून घोषित केले. नंतर त्याने पश्चिमेकडच्या प्रदेशात चाल करून नहपानाने बळकावलेल्या प्रदेशावर आक्रमण केले. त्याची आणि नहपानाची घनघोर लढाई नाशिकजवळच्या गोवर्धन पर्वताजवळ झाली. हा गोवर्धन पर्वत नेमका कुठला ते आता समजत नाही पण हा बहुधा त्र्यंबकेश्वरनजीकचा डोंगरी प्रदेश असावा. तीत नहपानाचा संपूर्ण पराभव होऊन तो सह्याद्रीच्या पर्वतरांगामधे आश्रयार्थ पळून गेला. या विजयानंतर गौतमीपुत्राने लागलीच नाशिकच्या लेण्यांस भेट देऊन तेथील बौद्ध भिक्षुसंघास 'अजकालकीय' नावाचे शेत निर्वाहासाठी दान केले व तसा उल्लेख तेथील शिलालेखामध्ये केला. याच लेखात गौतमीपुत्र स्वत:ला बेणाकटकस्वामी म्हणवतो. नाशिकचे युद्ध गौतमीपुत्राच्या कारकिर्दीच्या अठराव्या वर्षी झाले होते. गौतमीपुत्राच्या राज्यारंभाचे वर्ष निश्चितपणे माहीत नाही पण नहपानाच्या कारकिर्दीचे शेवटचे वर्ष शके ४६ आहे. त्यानुसार इस. १२५ मध्ये ही घटना घडली असावी.
नाशिक येथील विजयानंतर गौतमीपुत्राने सह्याद्रीमध्ये नहपानाचा पाठलाग करून त्याचा समूळ वंशविच्छेद केला व लागलीच कार्ले येथील लेणीला भेट देऊन तिथल्या बौद्ध संघाला निर्वाहासाठी करजक नावाचे गाव दान देऊन तसा शिलालेख तिथल्या भिंतीवर कोरविला. दोन्ही शिलालेखांतील वर्णनानुसार ह्या दोन युद्धात सुमारे पंधरा दिवसांचे अंतर होते असे दिसते. गौतमीपुत्राच्या कार्ले शिलालेखावरून नहपानाचा विच्छेद मावळप्रांती झाला असावा असे मानण्यास पुरेसा वाव आहे. या युद्धात फार मोठी कत्तल झाली. गौतमीपुत्राने नहपानाची सर्व नाणी जप्त करून त्यावर पुन्हा आपली मुद्रा उमटवून ती नाणी परत वापरात आणली. अशी जवळजवळ तेरा हजार नाणी सापडली आहेत.

संपूर्ण महागाथा मराठाशाहीची भाग १०४

  संपूर्ण महागाथा मराठाशाहीची संग्राहक ::विनोद जाधव भाग १०४ कौं ‍ डिण्यपूर (Kaundinyapur) पोस्तसांभार :: प्रणीता हरड भारतातील एक पुरातत्त्वी...