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मंगळवार, ४ एप्रिल, २०२३

संपूर्ण महागाथा मराठाशाहीची भाग ३६

 

संपूर्ण महागाथा मराठाशाहीची
संग्राहक ::विनोद जाधव



भाग ३६
यादव
सिंदखेड़ के मराठा जाधव
जाधव या जादव उत्तर-भारत और महाराष्ट्र की एक मराठा जाति है जिन्हें यादव नाम से भी पहचाना जाता है।[२०१]
सिंदखेड़ के जाधव मराठा सरदार, देवगिरि के यादवों के वंशज हैं। छत्रपति शिवाजी महाराज की माताजी जीजाबाई, सिंदखेड़ के लाखुजी जाधव की पुत्री थी।
माता जीजाबाई और बाल शिवाजी की मूर्ति
सेऊना (यादव) शासक
यदुवंशी अहीरों के मजबूत गढ़, खानदेश से प्राप्त अवशेषों को बहुचर्चित 'गवली राज' से संबन्धित माना जाता है तथा पुरातात्विक रूप से इन्हें देवगिरि के यादवों से जोड़ा जाता है। इसी कारण से कुछ इतिहासकारों का मत है कि 'देवगिरि के यादव' भी अभीर(अहीर) थे।[२०३][२०४] यादव शासन काल में अने छोटे-छोटे निर्भर राजाओं का जिक्र भी मिलता है, जिनमें से अधिकांश अभीर या अहीर सामान्य नाम के अंतर्गत वर्णित है, तथा खानदेश में आज तक इस समुदाय की आबादी बहुतायत में विद्यमान है।[२०५]
सेऊना राजवंश खुद को उत्तर भारत के यदुवंशी या चंद्रवंशी समाज से अवतरित होने का दावा करता है।[२०६][२०७] सेऊना मूल रूप से उत्तर प्रदेश के मथुरा से बाद में द्वारिका में जा बसे थे। उन्हें "कृष्णकुलोत्पन्न (भगवान कृष्ण के वंश में पैदा हुये)","यदुकुल वंश तिलक" तथा "द्वारवाटीपुरवारधीश्वर (द्वारिका के मालिक)" भी कहा जाता है।[२०८] अनेकों वर्तमान शोधकर्ता, जैसे कि डॉ॰ कोलारकर भी यह मानते हैं कि यादव उत्तर भारत से आए थे। [२०९] निम्न सेऊना यादव राजाओं ने देवगिरि पर शासन किया था-
दृढ़प्रहा [२१०]
सेऊण चन्द्र प्रथम [२१०]
ढइडियप्पा प्रथम [२१०]
भिल्लम प्रथम [२१०]
राजगी[२१०]
वेडुगी प्रथम [२१०]
धड़ियप्पा द्वितीय [२१०]
भिल्लम द्वितीय (सक 922)[२१०]
वेशुग्गी प्रथम [२१०]
भिल्लम तृतीय (सक 948)[२१०]
वेडुगी द्वितीय[२१०]
सेऊण चन्द्र द्वितीय (सक 991)[२१०]
परमदेव [२१०]
सिंघण[२१०]
मलुगी [२१०]
अमरगांगेय [२१०]
अमरमालगी [२१०]
भिल्लम पंचम [२११]
सिंघण द्वितीय [२१२][२१३]
राम चन्द्र [२१४][२१५]
खानदेश
खानदेश को "मार्कन्डेय पुराण" व जैन साहित्य में अहीरदेश या अभीरदेश भी कहा गया है। इस क्षेत्र पर अहीरों के राज्य के साक्ष्य न सिर्फ पुरालेखों व शिलालेखों में, अपितु स्थानीय मौखिक परम्पराओं में भी विद्यमान हैं।
राजा नन्दा
नंदरबार(खानदेश) परम्पराओं में अहीर राजा नन्दा का वृतांत मिलता है जिसका तुर्कों के साथ युद्ध हुआ था। स्थानीय मुल्लाओं के पास उक्त राजा से संबन्धित अन्य विस्तृत जानकारी भी संरक्षित है तथा नंदरबार में आज भी युद्ध का स्थान देखा जा सकता है
वीरसेन अहीर
तीसरी शताब्दी के बाद खानदेश के नासिक[८४] व जलगांव पर अहीर राजा वीरसेन[८५] का शासन रहा है।[८६] सहयाद्रि पर्वत श्रंखलाओ में, पूर्व की ओर धुले (महाराष्ट्र) में कई असामान्य नामो वाले किले हैं जैसे कि, डेरमल, गालना, पिसोल, कंकराला, लालिंगा, भामेर,सोंगिर आदि। 5वी शताब्दी में इस इलाके पर गवली राजा वीरसेन अहीर का शासन रहा था।[८७] दक्षिण-पश्चिम नासिक में त्रिंबक के निकट आंजनेरी के किले में वीरसेन अहीर की राजधानी थी
जावाजी व गोवाजी अहीर, थालनेर
अहीर वंश के शासन काल में गवली या अहीर राजाओं जावाजी व गोवाजी ने थालनेर की समृद्धि चरम सीमा पर पहुंचायी थी।
लक्ष्मीदेव, भंभागिरि
सिंहन के अम्बा शिलालेख (1240 AD) के अनुसार,भंभागिरि के अभीर राजा
लक्ष्मीदेव को परास्त कर, अहीर राजाओं की बहादुर नस्ल को मटियामेट करने का श्रेय सेनापति खोलेश्वर को जाता है
कान्ह-देव
अम्बा शिलालेख (1240 AD) में यादव राजा कान्ह-देव को 'जंगल में आग की तरह' की संज्ञा दी गयी है। साथ ही "आभीर कुल".... अपूर्ण रूप में शिलालेख में वर्णित है
नासिक (महाराष्ट्र) शिलालेखों में वर्णित अहीर शासक
महाक्षत्रप ईश्वरदत्त
डा॰ भगवान लाल के अनुसार आभीर या अहीर राजा ईश्वरदत्त उत्तर कोंकण से गुजरात में प्रविष्ट हुआ, क्षत्रिय राजा विजयसेन को पराजित करके ईश्वरदत्त ने अपनी प्रभुता स्थापित की।[९१] पतंजलि के 'महाभाष्य' में अभीर राजाओं का वर्णन किया गया है। अभीर सरदार सक राजाओं के सेनापति रहे। दूसरी शताब्दी में एक अहीर राजा ईश्वरदत्त 'महाक्षत्रप' बना था। तीसरी शताब्दी में सतवाहनों के पतन में अभीरों ने प्रमुख भूमिका निभाई थी
ईश्वरसेन
नासिक के गुफा अभिलेख के अनुसार वहाँ ईश्वरदत्त के पुत्र अभीर राजकुमार ईश्वरसेन का शासन रहा है।[९१][९४] नासिक अभिलेख में ईश्वरसेन माधुरीपुत्र का उल्लेख है। ईश्वरसेन अभीर शासक ईश्वरदत्त का पुत्र था। यह राजवंश (अभीर या अहीर) 249-50 AD में प्रारम्भ हुआ था, इस काल को बाद में कलचूरी या चेदी संवत के नाम से जाना गया।[९६] ईश्वरसेन (सन 1200) में एक अहीर राजा था।[९७] सतपुड़ा मनुदेवी मंदिर, आदगाव एक हेमंदपंथी मंदिर है इसकी स्थापना वर्ष 1200 में राजा ईश्वरसेन ने की थी।[९८] कलचूरी चेदी संवत जो कि 248 AD में प्रारभ होती हे, ईश्वरसेन ने इसकी स्थापना की थी।
वाशिष्ठिपुत्र
महाराष्ट्र के पुणे में प्रचलित दंत कथा के अनुसार, नाम 'वाशिष्ठिपुत्र', सतवाहन वाशिष्ठिपुत्र सतकर्णी का ध्योतक है। परंतु उसकी महाक्षत्रप की पदवी से प्रतीत होता है कि वह सतवाहन राजा नहीं था, अपितु अहीर वंश के शासक ईश्वरसेन के सिक्कों पर उसने महाक्षत्रप की उपाधि ग्रहण की हुयी है। अतः वाशिष्ठिपुत्र को सकारक अभीर वाशिष्ठिपुत्र के रूप में पहचाना जाता है।

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